प्रार्थना भाव है और भाव शब्द में बंध नहीं सकता इसी लिए प्रार्थना जितनी गहरी होगी, उतनी निःशब्द होगी। कहना चाहोगे बहुत, पर कह न पाओगे…
प्रार्थना ऐसी विवशता है, ऐसी असहाय अवस्था है। शब्द भी नहीं बनते। आंसू झर सकते हैं। आंसू शायद कह पाएं, लेकिन नहीं कह पाएंगे कुछ। पर शब्दों पर हमारा बड़ा भरोसा है। उन्हीं के सहारे हम जीते हैं। हमारा सारा जीवन भाषा है। तो स्वभावतः प्रश्न उठता है कि परमात्मा के सामने भी कुछ कहें। जैसे कि परमात्मा से भी कुछ कहने की जरूरत है! हां, किसी और से बोलोगे तो बिना बोले न कह पाओगे। किसी और से संबंधित होना हो तो संवाद चाहिए। परमात्मा से संबंधित होना हो तो शून्य चाहिए। संवाद नहीं, वहां मौन ही भाषा है। जो कहने चलेगा, चूक जाएगा। जो न कह पाएगा वही कह पाएगा। इसे खूब गहराई से हृदय में बैठ जाने दो; नहीं तो बस तोतों की तरह रटे हुए शब्द दोहराओगे। होंठ तो दोहराते रहेंगे मंत्रों को और भीतर भीतर कुछ भी न होगा, क्योंकि भीतर कुछ होता, तो ओंठ चुप हो जाते। भीतर कुछ होता है, तो शब्दों को पी जाता। भीतर शून्य होता, शब्द शून्य में लीन हो जाते हैं। और तब वह उतरता है शून्य में, वह तो बोलता है मौन में।
परमात्मा से तो केवल एक ही नाता बन सकता है हमारा, एक ही सेतु-वह है, चुप्पी का। परमात्मा और कोई भाषा जानता नहीं। जमीन पर तो हजारों भाषाएं बोली जाती हैं। फिर एक ही जमीन नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं, कम-से-कम पांच हजार जमीनों पर जीवन होना चाहिए। होना ही चाहिए पांच हजार पर तो। इससे ज्यादा पर हो सकता है, कम पर नहीं। फिर उन जमीनों पर और हजारों-हजारों भाषाएं होंगी। इन सारी भाषाओं को परमात्मा जानेगा भी तो कैसे जानेगा? एक ही भाषा तो विक्षिप्त करने को काफी होती है। इतनी भाषाएं, एक अकेला परमात्मा! बहुत बोझिल हो जाएंगी।
भाषा सामाजिक घटना है, भाषा नैसर्गिक घटना नहीं है। भाषा को छोड़ दो। और तुम सौभाग्यशाली हो। तुम पूछते हो मैं प्रार्थना में बैठता हूं तो बस चुप रह जाता हूं। यही तो प्रार्थना है। पहचानो, प्रत्यभिज्ञा करो, यही प्रार्थना है। यह चुप हो जाना ही प्रार्थना है।
जाने क्या हो गया हृदय को सब कुछ तेरा ही लगता है,
बिना तुम्हें पाए यह जीवन व्यर्थ और सूना लगता है।
ऐसी मन की व्याकुलता है
तेरे बिन अब रहा न जाता,
तुमको सुधियों में पाकर
दर्द विरह का सहा न जाता।
ओ, मेरी सुधियों के वासी, प्रेम स्वरूप अमर अविनाशी,
कर स्वीकार साधना मेरी
एक बार मुझको अपना लो,
फिर न कहूंगा,
सच कहता हूं।
■ ओशो