किसी गांव में एक पंडित रहता था। उसने दान के आटे से धीरे-धीरे एक बड़ा मटका भरकर अपने पास रख लिया। प्रतिदिन सुबह उठकर पंडित मटके की ओर देखता और सोचता, यदि कभी अकाल पड़ जाए, तो इससे थोडा धन कमाया जा सकता है। इस आटे के पैसे से मैं दो बकरियां खरीदूंगा। जब बकरियों के बच्चे हो जाएंगे, तो उन सबको बेचकर एक गाय खरीद लूंगा। गाय के बच्चे होने पर मैं उसे बेचकर भैंस खरीदूंगा। भैंसे बेचकर घोड़ी। फिर घोड़ियों के कई बच्चे हो जाएंगे। उन घोड़े-घोड़ियों को बेचकर मैं एक बड़ा सा मकान बनाऊंगा। तब मेरी शादी होगी। फिर मेरा एक बेटा होगा, जिसका नाम मैं सोम शर्मा रखूंगा।
पंडितजी इसी तरह कल्पनाओं का घोड़ा दौड़ाते। एक दिन पंडितजी कल्पना में आगे बढ़ गए आज उन्होंने आगे अपने पुत्र को घुटनों के बल चलते देखा…फिर सोचा वह घुटनों के बल चलता हुआ घोड़ों के पास से मेरे पास आएगा। मैं अपनी पत्नी से कहूंगा कि बालक को पकड़ो, वह घोड़ों के पास जा रहा है, लेकिन पत्नी बेचारी, तो उस समय खाना बना रही होगी। इतने में वह बालक बिल्कुल घोड़ों के पास पहुंच जाएगा। ऐसे में, मुझे ही अपनी चारपाई से उठकर भागना होगा। मैं अपने पुत्र को बचाने के लिए उसे जोर से टांग मारूंगा…
बस! फिर क्या था,पंडितजी ने जोर से अपनी टांग उस मटके पर दे मारी और मटका टूट गया। सारा आटा धरती पर बिखर गया, कल्पना का संसार हवा में उड़ गया।
ऊं तत्सत…
