एक साधु रोज नगरवासियों से भिक्षा मांग कर जीवनयापन करता था। एक दिन उसके मन में तीर्थयात्रा का विचार आया, लेकिन वह सोच में पड़ गया कि रास्ते के खर्च के लिए धन का इंतजाम कैसे हो! उसी नगर में एक कंजूस सेठ रहता था। साधु ने उसके पास जाकर कुछ सहयोग की विनती की। सेठ बोला, ‘साधु महाराज, अभी धंधे में मंदी चल रही है और फिर मुझे कारोबार में कुछ दिन पूर्व घाटा भी हुआ है। अभी तो आप मुझे माफ करें।’
साधु समझ गया कि सेठ झूठी कहानी गढ़ रहा है। वह वहां से लौटने लगा। तभी सेठ बोला, ‘रुकिए, आप मेरे यहां आये हैं, तो मैं आपको एक चीज देता हूं।’ ‘उसने एक दर्पण निकाला और साधु से कहा कि आपको अपने प्रवास के दौरान जो सबसे बड़ा मूर्ख मिले, उसे यह दर्पण दे दीजिये।’ साधु सेठ को आशीष देते हुए वहां से निकल गया।
कई दिनों के बाद जब साधु तीर्थयात्रा से लौटकर आया, तो उसे पता चला कि सेठ बेहद बीमार और मरणासन्न अवस्था में है। साधु उससे मिलने पहुंचा।
अपनी कंजूस प्रवृति के कारण सेठ न तो अपना इलाज ढंग से करा पाया था और न धन को किसी सत्कर्म में लगा पाया। साधु ने यह देखकर अपने झोले में से दर्पण निकाला और सेठ को लौटाते हुए कहा, ‘मुझे आपसे बड़ा मूर्ख और कोई नहीं मिला, जिसने कमाया तो बहुत, लेकिन जिसके मन में धन का सदुपयोग करने का विचार तक नहीं आया।’
ऊं तत्सत…
