एक बहुत बड़े सेठ ने अपने घर भोजन पर शहर के कई लोगों को आमंत्रित किया। भोज में दो ब्राह्मण भी शामिल थे और कुछ घोषित अपराधी भी आए हुए थे। सेठजी सपरिवार व्यवस्था में लगे हुए थे, वे ब्राह्मणों के पास पहुंचे।
एक ब्राह्मण जब हाथ-पैर धोने गए, तो सेठजी ने दूसरे ब्राह्मण से कहा कि आपके साथ वाले ब्राह्मण देवता काफी यशस्वी और ज्ञानी प्रतीत होते हैं। ब्राह्मण ने ईर्ष्यावश कहा कि अरे सेठजी, इनकी सात पुश्तों में भी कोई ज्ञानी नहीं हुआ। केवल भेष बदलकर पंडित बने हुए फिरते हैं… बैल हैं बैल..।
इसी दौरान पहले वाला ब्राह्मण हाथ-पांव धोकर वापस आ गए। इसके बाद दूसरे वाले ब्राह्मण हाथ-पैर धोने चले गए। सेठजी ने वही सवाल दूसरे वाले ब्राह्मण से भी दोहराया। वह भी ईर्ष्यावश बोला, सेठजी आपको ईश्वर ने धन तो दिया, पर मनुष्य को पहचानने की शक्ति न दी। ये कब से ज्ञानी हो गया, ज्ञानी तो इसके पड़ोस में भी नहीं बसते। गधा है गधा….।
तभी दूसरे ब्राह्मण भी हाथ-पांव धोकर आ गए और एक-दूसरे को देख चुप हो गए। अब दोनों के आगे खाने की थाली लगा दी गई। दोनों ब्राह्मण यह देखकर हतप्रभ थे कि उनके सामने रखी गई एक थाली में हरी घास और दूसरी में भूसा था। जबकि जो घोषित अपराधी सेठजी के यहां आए थे उनकी थाली में तरह-तरह के पकवान थे।
दोनों ब्राह्मण गुस्से में खड़े हो गए और सेठ को अपने अपमान के लिए भला-बुरा कहने लगे। सेठजी हाथ जोड़ के खड़े हो गए और बोले कि महाराज जो सवाल मैंने आप लोगों से किया, वहीं सवाल इन अपराधियों से भी किया था।
इन लोगों ने या तो एक-दूसरे की प्रशंसा की या फिर चुप रहे, भले ही अपराधी हैं, लेकिन दूसरे की कमी नहीं बताई और अगर किसी में कमी थी, तो उसे मेरे सामने उजागर करने से बेहतर चुप रहना समझा। उन्होंने एक-दूसरे का सम्मान किया, इसलिए मैंने उनका यथोचित सम्मान किया जैसा उन्होंने बताया।
आपने उसी सवाल पर एक-दूसरे को गधा और बैल कहा तो महाराज मैंने ऐसे पशु को जो खाना दिया जाता है, वही परोस दिया। मुझसे कोई गलती हुई हो, तो क्षमा चाहता हूं। यह सुनकर दोनों ब्रह्मणों को अपनी गलती का बोध हुआ और चुपचाप वहां से चले गए।
ऊं तत्सत…