एक विद्वान महात्मा थे। जब वह बूढ़े होने लगे तो उन्होंने सोचा कि वे गुप्त विद्याएं जिन्हें सिर्फ वही जानते है, कुछ भरोसेमंद शिष्यों को सिखा देनी चाहिए। उन्हीं गुप्त विद्याओं में से एक थी लोहे से सोना बनाने की विद्या। यह विद्या उन्होंने अपने एक भरोसेमंद शिष्य को सिखाने की सोची और शाम को उसे लोहा लाने को कहा।
शिष्य समझ गया कि उसे गुरुजी कुछ गूढ़ विद्या सिखाने वाले हैं। उसे लगा कहीं गुरुजी यह किसी और को भी न सिखा दें, इसलिए उसने विद्या सीखने के बाद गुरुजी को मार डालने का निश्चय किया। शाम को शिष्य लोहा लेकर गुरुजी की कुटिया में पहुंचा। शिष्य को पता था कि गुरुजी की पत्नी उसे गुरुजी के साथ भोजन के लिए जरूर आमंत्रित करेंगी। गुरुजी ने शिष्य को लोहे से सोना बनाना सिखा दिया। इस बीच शिष्य किसी बहाने से उठा और गुरुजी के खाने में जहर मिला आया । उसने गुरुजी की थाली में खाद्य पदार्थ को इस तरह उलट-पुलट दिया, जिससे वह थाली अलग से पहचान में आ जाये। इसी बीच गुरुजी की पत्नी आई और उन्होंने थाली को फिर से व्यवस्थित कर दिया और दोनों थाली सजा दी।
शिष्य पहचान नहीं पाया कि वह कौन सी थाली थी, जिसमें वह जहर मिलाकर आया था। उसने गुरुजी वाली थाली को ही अपनी थाली समझकर खाना शुरू कर दिया। भोजन करने के बाद वह अचेत हो गया। गुरुजी ने तत्काल जड़ी -बूटी से उसका उपचार कर उसे स्वस्थ कर दिया । होश में आने के बाद वह जोर-जोर से रोने लगा और सारी बात बता दी । गुरुजी ने कहा, ‘लगता है मेरी ही शिक्षा में, कोई चूक रह गई, तभी तो मैं तुम्हारे भीतर श्रेष्ठ भाव नहीं भर सका ।’ वह पश्चाताप करने लगे । इसी पर शिष्य ने कहा, ‘नहीं, आपकी शिक्षा में कोई कमी नहीं है । अगर ऐसा होता तो मैं अपनी गलती स्वीकार ही क्यों करता । मुझे प्रायश्चित करने दे । मैं इस विद्या का कभी उपयोग नहीं करूंगा ।’ मित्रों, इसी शिष्य की भांति हमसे भी कभी जाने-अनजाने बड़ों की दी शिक्षा से विपरीत कार्य हो सकता है, लेकिन अपनी गलती स्वीकार कर प्रायश्चित करने वाला ही इंसान कह लाने योग्य है।
ऊं तत्सत…
