बहुत पुरानी बात है, एक सेठ था दिल का उदार। उसके पास विलासिता की सभी वस्तुएं मौजूद थीं। एक दिन वह संत को अपना बंगला दिखाने लाया।
संत अलमस्त थे और सेठ अपने बड़प्पन की डीगें हांकने में व्यस्त था। संत को उसकी हर बात में अहम् ही नजर आता था। संत ने उसकी मैं-मैं की महामारी मिटाने के उद्देश्य से दीवार पर टंगे मानचित्र को दिखाते हुए पूछा, ‘इसमें तुम्हारा शहर कौन सा है?’
सेठ ने मानचित्र पर एक बिंदु पर उंगली टिकाई। संत ने हैरान मुद्रा में पूछा, ‘इतने बड़े मानचित्र पर तुम्हारा शहर बस इतना सा ही है। क्या तुम इस नक्शे में अपना बंगला बता सकते हो?’ उसने जबाव दिया, ‘मेरा बंगला इस पर कहां दिखता है? वह तो ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है।’
संत ने पूछा, ‘तो फिर अभिमान क्यों?’ शर्मिंदगी के मारे सेठ का सिर झुक गया। वह समझ गया कि नक्शे में उसका नामोनिशान नहीं हैं, फिर वह क्यों फूला फिर रहा है? मित्रों, अहंकार बुद्धि को खा जाता है। वैसे भी, जो कुछ भी है सब कभी न कभी नष्ट होगा। यह शरीर भी, तो अहम कैसा!
ऊं तत्सत…
