द्वापरयुग में महाभारत युद्ध के समय की बात है। कौरवों और पांडवों में युद्ध चल रहा था। कर्ण, अर्जुन को मारने की शपथ ले चुके थे। कर्ण लगातार बाणों की बारिश कर रहे थे। यह देख भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन का रथ जमीन में नीचे झुका दिया।
कर्ण का एक तीर, अर्जुन के मुकुट को हटाते हुए चला गया। अचानक वह तीर लौटकर कर्ण के तरकश में वापिस आ गया। यह देख कर्ण को आश्चर्य हुआ। तीर ने कहा, ‘हे कर्ण! तुम अगली बार ठीक से निशाना लगाना।’ कर्ण, तीर को बोलते देख हैरान था।
कर्ण ने तीर से पूछा, ‘आप कौन हैं?’ तीर ने कहा, ‘मैं साधारण तीर नहीं हूं। मैं महासर्प अश्वसेन हूं। एक बार अर्जुन ने खांडव वन को अग्नि से जला दिया था। जिससे मेरा पूरा परिवार जलकर मर गया। अतः मैं अर्जुन से बदला लेना चाहता हूं।’
कर्ण ने कहा, ‘मित्र मैं तुम्हारी भावना की कद्र करता हूं, लेकिन यह युद्ध मैं अपने पुरुषार्थ से जीतना चाहता हूं। अनीति की विजय के बजाए मैं नीति के साथ लड़ते हुए मर जाना ज्यादा उत्तम समझता हूं।’ महासर्प अश्वसेन( तीर) कर्ण की प्रशंसा करता हुआ बोला, ‘हे कर्ण वास्तव में तुम धर्म में प्रतिष्ठित हो। तुम्हारी कीर्ति उज्जवल रहेगी।’
मित्रों, सार यह है कि कर्ण की नीति और धर्म ही वह गुण है, जो उन्हें महाभारत के महानायकों की सूची में लाता है। लक्ष्य की पूर्णता के लिए संकल्पित होने के बावजूद धर्म के साथ समझौता न करना ही सच्ची वीरता है। ऐसा ही वीर दुनिया को नई दिशा देता है।
ऊं तत्सत…
