सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी।
बारह ज्योतिर्लिंगों में एक जिसकी महिमा का गुणगान स्वयं देवता भी करते हैं काशी में स्थित विश्वनाथ हैं। माना जाता हैं कि सृष्टि के निर्माण से पहले उत्पन्न काशी के साथ ही स्वयंभू विश्वनाथ भी उतने ही पुराने हैं। हर घड़ी काशी में विराजे महादेव ने काशी का चयन अपने निवास स्थान के रूप में किया हैं और विश्वनाथ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। सदियों से मान्यता रही हैं कि काशी में गंगा स्नान के उपरांत विश्वनाथ के दर्शन मात्र से ही मनुष्य सभी जन्मों के पाप से मुक्ति पा जाता हैं।
काशी विश्वनाथ मंदिर में विराजे देवाधिदेव की इस पुण्य नगरी के संबंध में कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं। माना जाता है कि प्रलयकाल में भी इसका लोप नहीं होता, क्योंकि भगवान इसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लेते हैं और सृष्टि काल में इसे नीचे उतार देते हैं। आदि सृष्टि स्थली भी काशी भूमि बतलाई जाती है, जहां भगवान विष्णु ने सृष्टि रचना के लिए तप कर आशुतोष को प्रसन्न किया, जिसके बाद उनके नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुए और उन्होंने सर्वस्व रचा। विश्वनाथ की आराधना से ही वशिष्ठजी तीनों लोकों में पूजे गए तथा राजर्षि विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए।
एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने एकबार क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी का पांचवां सिर काट दिया, तो वह उनके करतल से चिपक गया। बारह वर्षों तक अनेक तीर्थों में भ्रमण के बावजूद वह सिर उनसे अलग नहीं हुआ, किन्तु काशी में प्रवेश करते ही वे ब्रह्महत्या से मुक्त हो गए। महादेव को काशी इतनी अच्छी लगी कि उन्होंने भगवान विष्णु से इसे अपने नित्य आवास के लिए मांग लिया, तब से काशी विश्वनाथ का निवास स्थान बन गई।युगों युगों की साक्षी काशी विश्वनाथ मंदिर ने कई हमले भी झेले हैं। सन 1194 में कुतुबुद्दीन एबक ने और बाद में अलाउद्दीन खिलजी ने हजारों मंदिरों को नष्ट किया, जिसमें विश्वनाथ मंदिर भी था। 1585 में सम्राट अकबर के राजस्व मंत्री की मदद से नारायणभ ने विश्वनाथ मंदिर को पुन: बनवाया। बाद में औरंगजेब ने 1669 में इसे तुड़वाकर ज्ञानवापी सरोवर पर मस्जिद बनवा दी। वर्तमान मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा 1780 में कराया गया था। मराठा राजाओं, सरदारों और अंग्रेजों के काल में कई मंदिर बनवाए गए। सन 1828 में प्रिन्सेप द्वारा कराई गणना में काशी में एक हजार मंदिर थे, जबकि शेकिरंग के समय में 1455 मंदिर और हैवेल के मुताबिक 3500 मंदिर थे। सन 1839 में महाराजा रणजीत सिंह द्वारा विश्वनाथ मंदिर को 820 किलोग्राम शुद्ध सोने से मढ़वाया गया था, जो आज भी विद्यमान है।
यहां विश्वनाथ मंदिर में गर्भगृह के भीतर चांदी से मढ़ा भगवान विश्वनाथ का 60 सेंटीमीटर ऊंचा शिवलिंग है। यह मंदिर प्रतिदिन 2।30 बजे भोर में मंगल आरती के साथ खुलता है, फिर 4 बजे से 11 बजे तक सभी के लिए मंदिर के द्वार खुल जाते हैं। 11।30 बजे की आरती के बाद भगवान को 56 प्रकार का भोग चढ़ाया जाता है, फिर 12 से 7 बजे तक विश्वनाथजी सभी को दर्शन देते हैं। शाम 7 से 8।30 बजे तक महादेव का मनोहारी शृंगार कर सप्तऋषि आरती होती है और दर्शनार्थियों के लिए 9 बजे तक मंदिर खुला रहता है, इसके बाद दर्शन बाहर से संभव है। रात्रि 10।30 की शयन आरती के बाद मंदिर के पट बंद हो जाते हैं। महाशिवरात्रि पर यह मंदिर चौबीसों घंटे खुला रहता है, और अपार जनसमूह विश्वनाथ दर्शन को उमड़ पड़ता है। वैसे तो यहां प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति व मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है। इस दिन नगर में शिवगणों की परंपरागत वेशभूषा में बारात निकलती है और रात्रि को शिव विवाह संपन्न होता है।
विश्वनाथ मंदिर के सामने ही मां अन्नपूर्णा का पवित्र मंदिर है, जिसे 1725 में मराठा सरदार पेशवा बाजीराव ने बनवाया था। मान्यता है कि यहां का प्रसाद अनाज भंडार में डालने से वह कभी खाली नहीं होता। यहां चांदी के सिंहासन पर विराजमान मां अन्नपूर्णा की कांस्य प्रतिमा का दर्शन रोजाना होता है। लेकिन, धनतेरस से दीपावली के तीन दिनों तक भक्तों को माता की स्वर्ण प्रतिमा का दर्शन मिलता है, जिसमें मां अन्नपूर्णा भगवान शिव को अन्नदान कर रही होती हैं। उन दिनों में भक्तों को प्रसाद में पैसा (सिक्का) व धान (अनाज) दिया जाता है, पैसे को धनकोश और अनाज को अन्नभंडार में रखने से कभी अन्न व धन की कमी नहीं होती।
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