गुलजार साहब कभी-कभी कुछ अटपटे से फिल्मी गीत भी लिख देते हैं, ऐसा मेरा व्यक्तिगत ख्याल है। लेकिन देश के ताजा राजनीति में भी प्रतिदिन कुछ न कुछ अटपटा घट जाता है, जिस पर एक ऐसा ही गीत फिट बैठता है। बोल कुछ ऐसे हैं-
“इब्नबतूता
बगल में जूता
पहने तो करता है जुर्म
उड़ उड़ आवे, दाना चुगे
उड़ जावे चिड़िया फुर्र…”
चुनाव में जूता कभी मंच पर चलता है, तो कभी दो महिलाएं जूते को लेकर भिड़ जाती हैं। जी हां, चर्चा अमेठी की ही है, जहां जूते की किस्मत ऐसी चमकी कि कांग्रेस-भाजपा दोनों की कद्दावर महिला नेता प्रियंका गांधी और स्मृति इरानी ‛जूते’ पर उलझ पड़ी। खैर, अपनी-अपनी दूरदृष्टि के मुताबिक नेतागण अक्सर चुनाव प्रचार के दौरान जनता को कम्प्यूटर, सायकिल, टीवी, शराब टैक्स फ्री…बांटते हैं। फिर, स्मृतिजी को यदि जूते देने की जरूरत महसूस हुई तो उन्होंने ऐसा किया। अब प्रियंका इसे राहुल गांधी का अपमान कह रही हैं, जबकि स्मृति का मानना है कि प्रियंका जी को वहां के लोगोँ की जरूरत का अंदाजा नहीं है।
अब, जनता की तकलीफ, उसकी जरूरतों की फिक्र किस नेता या दल को है, इसे लेकर तो शायद जनता भी ‛कंफ्यूज’ है, क्यों! ये तो पता नहीं, लेकिन गुलजार की आखिरी पंक्तियों पर गौर कर सकते हैं-
“…अगले मोड़ पर मौत खड़ी है
अरे मरने की भी क्या जल्दी है
हार्न बजा कर आ बगिया में
दुर्घटना से देर भली है
दोनों तरफ से बजती है यह
आए हाए जिंदगी क्या ढोलक है।”
■ सोनी सिंह