हसन नईम की पंक्तियां यकायक जेहन में ताजा हो आई-
“दिल में हो आस तो हर काम संभल सकता है,
हर अंधेरे में दीया ख्वाब का जल सकता है।”
खैर, शायरों की बात अलग है, क्योंकि दुनिया को देखने के लिए उनके पास सियासतदारों सी नजर नहीं होती। हालांकि, गंगा को ‛राष्ट्रीय नदी’ का दर्जा देने का केंद्र का ताजा फैसला स्वागत योग्य है, लेकिन फैसलों को हकीकत का जामा पहनाने में लगने वाला लंबा वक्त और योजनाओं की कछुआ चाल सवाल भी खड़े करती हैं! सवाल यह भी है कि स्वामी सानंद के जीवित रहते हुए यह फैसला लेने में क्या कठिनाई थी?
वैसे, अब पानी के साथ ही जहरीली होती हवा भी चिंता का विषय बनती जा रही है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने गुजरे हफ्ते जो आंकड़े सार्वजनिक किए, वे इस तथ्य की ताकीद करते हैं। उन्होंने 65 शहरों की आबोहवा का परीक्षण करने पर पाया कि इनमें से 60 की हालत खराब है। दिल्ली और उसके आसपास का इलाका तो गंभीर प्रदूषण की चपेट में है। लेकिन, सियासत के चश्मे से देखें तो, हवा-पानी या अन्य समस्याएं आज मुंह नहीं उठा रही, बल्कि 70 साल से विद्यमान हैं, किन्तु यह जरूरी तो नहीं कि पिछली सरकार ने अपना काम नहीं किया, तो अगली भी अपना कर्तव्य यह कह न निभाए! और सच यह भी तो है कि केंद्र से लेकर राज्य तक की मौजूदा सरकारें पिछली सरकारों पर ही नाकामियों का ठीकरा फोड़ रही हैं! यह तो ऐसी बात हुई कि किसी कारण वश पिता निरक्षर रह गया, तो क्या बच्चों को भी साक्षर नहीं होना चाहिए!! बेहतर हो, सियासतदार शायरों की तरह सोचने लगें, तो आम जन की भलाई के लिए हर काम मुमकिन लगने लगेगा।
■ संपादकीय