बहुत दिन हुए प्रिय सहेली से मुलाकात को, सो मेरे कदम ‛महिला दिवस’ के रोज आपोआप उसके घर की ओर बढ़ गए। वैसे भी, बधाई तो देना बनता ही था, साथ ही महिलाओं के समानता के अधिकार को लेकर आज (8 मार्च) चर्चा किए बिना दिवस अधूरा ही गुजर जाता। तो, मैंने भी अपने बढ़ते कदमों पर लगाम नहीं कसा और उसके दरवाजे पर जा पहुंचीं। अभी डोरबेल बजाने को उंगलियां चैतन्य हो ही रहीं थीं कि झटके से दरवाजा खुल गया। सहेली के पति महोदय कचरे का डिब्बा हाथ में थामे बाहर निकल रहे थे, मुझे देख एक पल को ठिठके, फिर स्वागत वाली मुस्कान मेरी तरफ उछाल पत्नी को आवाज लगाते हुए आगे बढ़ गए। मैंने भी ड्राइंग रूप में प्रवेश किया। सामने सोफे पर धंसी सहेली टीवी के रिमोट पर उंगलियां दबाते हुए चैनल बदल रही थी। मुझे देखते खुशी से लगभग उछल पड़ी और मेरी बाहें पकड़, घसीटती सी बेडरूम की ओर बढ़ गई।
बेड पर बैठकर सांसों को सामान्य करते ही मैंने उसे महिला दिवस की बधाई दी, तो वह नाराजगी के लहजे में बोली- “महिलाओं की स्थिति भला कभी बदली है? क्या एक दिन भी महिलाओं के लिए पुरुष त्याग कर सकता है? क्या महिला-पुरुष की कभी बराबरी हो सकती है?…” बिन रुके जाने कितने सवाल उसने पूछ डाले… फिर खुद को ब्रेक लगाते हुए बोली- “खैर छोड़! तू आ गई, तो मेरा दिन खास हो गया।” उसकी बात ख़त्म ही हुई थी कि उसके पति महोदय ने ट्रे थामे कमरे में प्रवेश किया। गर्मागरम समोसे देख मेरे तो मुंह में पानी भर आया। बिस्तर पर पेपर बिछाकर उन्होंने ट्रे हमारे सामने रख दी और पत्नी से पूछा- “ठंडा, चाय या कॉफी?” पत्नी ने उनकी तरफ देखे बिना, सवाली लहजे में मुझे घूरा? मेरे चाय बोलते ही पति महोदय कमरे से बाहर चले गए।
अब प्रश्न की बारी मेरी थी, पर मेरे मुंह खोलने से पहले ही सहेली बोल पड़ी- “आज मेरी पड़ोसन पति के साथ सिनेमा जा रही है, डिनर भी बाहर करके लौटेगी। सुबह-सुबह मुझे फूलों का गुलदस्ता दिखाने आई थी, जो उसे तोहफे में मिला था… और यहां तो छुट्टी तक के…” उसकी आंखों में आंसू छलछला गए। मैंने उसे तसल्ली दी और सारी बात समझ में आ गई कि उसके पति के हाथ में कचरे का डिब्बा क्यों था, समोसा, चाय… और इन सबके साथ किचन में खाना भी पक रहा था, क्योंकि सहेली साथ थी, पर कुकर सीटी बजा रहा था… इन सबके बाद पति महोदय को ऑफिस भी जाना था, जिसकी नाराजगी थी…।
खैर, मैं समोसे का लुफ्त लेते हुए “महिला उत्थान” पर गपशप में व्यस्त हो गई, लेकिन मन में लगातार एक प्रश्न सिर उठा रहा था, क्या सचमुच महिला-पुरुष की बराबरी हो सकती है! जब जिसे मौका मिलता है, वह स्वयं को घर का ‘बॉस’ साबित करने की कोशिश करता ही दिखता है! समानता चाहिए किसे, जब सारी व्यवस्था ‛मैं श्रेष्ठ, नहीं मैं श्रेष्ठ’ साबित करने की कोशिश में जुटी है…!
तब तक गरमागरम चाय आ गई और मैंने मन को झटका कि जब पुरुषों ने इतने साल नहीं सोचा, तो अपनी सहेली की आज की शिकायत को मैं क्यों जायज या नाजायज के तराजू पर तौल रही हूं। यह सोच फरीहा नकवी का शेर जेहन में ताजा हो आया-
“मजमाने अब तिरे मद्द-ए-मुकाबिल
कोई कमजोर सी औरत नहीं है।”
और फिर मन भी शांत हो गया और हम महिलाओं की बराबरी के उपायों पर ‘गंभीर’ चर्चा में व्यस्त हो गए।
■ सोनी सिंह