भारत-पाकिस्तान, मोदी-राहुल, चुनाव, गठबंधन-राजनीति और जाने क्या-क्या.. दुनिया भर की कचर-पचर से त्रस्त यह अनपढ़ मन अरसे बाद आज कुछ लिखने को कुलबुलाया। हाथों में कलम लिए विचारों में शुमार अंतस की कुलबुलाहट शांत करने को विषय भी चाहिए था, सो हो लिए बनारस की यादों में गुम उसी बनारसी फक्कड़पन के वैचारिक गोद में। इंद्रधनुषी मनोदशा में विश्व महिला दिवस कौंधा, फिर क्षणिक उत्कंठा के बाद मन पस्त हो गया कि नारी पर लिखना ईश्वरीय सुख पाने जैसा है, जो विरले ही मिलता है।
खुद की बुदबुदाहट में खुद को कुरेदा, “तुझसे ना होगा ‘अनपढ़’, नारी जैसे विहंगम विषय पर लिखना!!” फिर, खुद को ही सांत्वना दी, “ना होगा, न सही! मैं कौन सा बौद्धिक हूं, जो लोग-बाग मुझे पढ़ने को मरे जा रहे हैं। कुछ भी लिख दूं, खुद की आत्मा तो सन्तुष्ट होगी।” बस, विचारों की श्रृंखला आड़े-तिरछे शब्द-भंजन में जुट गई।
हम जब भी नारी, महिला की संकल्पना करते हैं, तो सहज ही सबसे पहले हमारा मन मां को याद करता है। वजह, हमारे जीवन की प्रथम महिला मां ही होती हैं, जो हमें न सिर्फ दुनिया में लाती हैं, बल्कि हमारी सांसों की रक्षा भी करती हैं। फिर, हम वक्त की रफ्तार में तमाम रिश्ते-नातों में गिरते-पड़ते, उलझते-संभलते दुनियादारी सीख जाते हैं। इन सब में पग-पग पर नारी की तमाम भूमिकाएं होती हैं, कई बार ये भूमिकाएं एक-दूसरे पर हावी होती हैं, तो कई बार जीवन के संघर्षों की साक्षी भी बनती हैं। तमाम भूमिकाओं में लिपटी नारी खुद से तो कदम-दर-कदम संघर्ष कर ही रही होती है, साथ ही अपने से जुड़े हर रिश्ते को सहेजते हुए मजबूत भी कर रही होती है। लेकिन, हम बदले में नारी को क्या दे रहे होते हैं- कभी तिरस्कार, तो कभी मर्यादा की पुकार, कभी त्याग की प्रतिमा, तो कभी अबला, सबला, वीरांगना आदि का प्रमाण-पत्र। आखिर, क्यों हम नारी को किसी न किसी सर्टिफिकेट में बांध उसे उन्मुक्त होने से रोकते हैं। क्यों हम पुरुष-प्रधान समाज में पुरुषों को बिना किसी सर्टिफिकेट के स्वच्छंद जीने का हक देते हैं। अगर, समाज पुरुष-प्रधान हो सकता है, तो स्त्री-प्रधान क्यों नहीं। ..या फिर ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि समाज सिर्फ समाज रहे, स्त्री या पुरुष प्रधान नहीं। शायद इसीलिए समाज की कुरीतियां, कुंठाएं बढ़ रही हैं, क्योंकि हम इक्वल नहीं हो पा रहे। हम आज भी लिंग-भेद से अभिशप्त हैं, तभी तो प्रति हजार बालकों में प्रति सैकड़े बालिकाएं हैं, तभी तो महिलाओं के खिलाफ हिंसा के आंकड़े बढ़ रहे हैं। घर में बेटी है, तो मुहल्ले की स्त्रियां ही पहला सवाल दागेंगी- “बेटा नहीं है, एक बेटा भी होना चाहिए..?” कुछ तो इसे वंशवाद से जोड़कर जबरन पुरुषवादी बनाने पर तुल जाएंगे। कई मामलों में स्त्री को ही स्त्री की स्वतंत्रता खटकती दिखती है, ‘बेटी को ससुराल में कष्ट न हो, लेकिन बहू को घर में आराम न मिले’। कई जगहों पर तथाकथित आधुनिक-वादिता ऐसी भी दिखती है कि घर में नौकरानी मुफ्त में सारा काम कर दे, बाहर नारी पर हो रहे अत्याचार की लड़ाई लड़ रहे हैं। ऐसी आधुनिका को अगर कोई मर्यादा की याद दिलाना चाहे, तो तत्काल स्वावलंबन जाग उठेगा। सच यह है कि आज भी बहुसंख्यक महिलाएं अस्तित्व से संघर्ष कर रही हैं, और उनकी लड़ाई उनसे ही है। टीवी डिबेट, पत्र-पत्रिकाओं में स्त्री स्वावलंबन के मामले में शायद एक फीसद महिलाएं शाश्वत हों, शेष तो बस खुद को मुखर कर दूसरों को नगण्य ही मानती हैं। अगर, सही मायने में हमें स्त्री को आगे लाना है तो सभ्य समाज की स्थापना करनी होगी और स्त्री-पुरुष दोनों को एकात्म होकर समानता लानी होगी, तभी हम आने वाली पीढ़ी को उत्कृष्टता दे पाएंगे।
न कर गुमां खुद की बुलंदी पर
शह सवार ना रहा तू इस कदर
पत्थरों को तबीयत से न उछाल
इन्हें कर तू नई राह में इस्तेमाल
बना ऐसा मुकाम खुद फख्र हो
आने वाली नस्लें बना बेमिसाल
■ कृष्णस्वरूप