थोड़ी देसी.. या यूं कहें भदेसी ही सही, लेकिन इस शीर्षक की सहजता बड़ी मौजूं है। अपनेपन का पुट लिए यह वाक्य अगर गौर करें, तो वाकई झिंझोड़ने वाला है। कहां तो मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम और कहां हम बज्र संसारी जीव, जो दिन-रात ‘राम-राम’ करते भी राम को न पा सके। यह अनपढ़ तो आज तक न राम को समझ पाया, न उनके प्रतिरूपों को.. किसी को शिव-शिव कहते सुना, तो किसी को राधे-राधे, ओह!गॉड, जीजस, याss!खुदा, अल्लाह, वाहेगुरु.. और जाने क्या-क्या!! शायद यही वजह है कि लोग जितना राम के पीछे भाग रहे हैं, राम उतना ही लोगों से दूर होते जा रहे हैं। ..तो चलिए, आज इस अनपढ़ के अनगढ़े विचारों से ‘रामाचार’ ही कर लिया जाए।
इन दिनों ग्लोबल हुए “राम’-नाम” का ही बोलबाला है, जितने मुंह उतने राम। ईश्वर की परम आस्था में डूबा यह शब्द भले ही हमें आस्तिक न बनाता हो, पर इससे नास्तिक होने की परिकल्पना परे ही है। हां, यह अलग बात है कि राम-नाम की लूट का फायदा हर किसी को नहीं मिलता। हनुमानजी ने सीना चीर कर भी वह प्रसिद्धि नहीं पाई, जो आजकल लोग सिर्फ राम-राम चिल्ला कर पा ले रहे हैं। रामजी की महिमा से यह अनपढ़ मन भी अछूता नहीं.. भोर में मंदिरों की घण्टियों और मस्जिदों की अजान से शुरू हुई राम-राम देर रात तक टीवी डिबेट से लेकर गली-मोहल्लों तक की तू-तू मैं-मैं भी रामजी के बिना अधूरी ही रहती है। यहां राम से आशय सिर्फ अयोध्या वाले प्रभु श्रीराम से नहीं है, बल्कि उन्हें मानने-जानने वाले हर व्यक्ति के घर में विराजे रामजी से है। यह बात दीगर है कि घर तो दूर अपने अंतर्मन को खंगालने का प्रयास किए बिना सभी ने राम के लिए दुनिया सिर पर उठा रखी है।
नित नए अध्यायों से पुष्ट होते ‘रामाचार’ में आजकल अयोध्याकांड मुखर है। सूचना-तंत्र की बहस-मुबाहसों में पता चला है कि रामजी को घर दिलाने लाखों शिवसैनिक आ रहे हैं। अभी रामजी रामसैनिकों, बजंरगसैनिकों, भगवा-फतवा.. जाने किन-किन सैनिकों की मदद से घर पाने की तैयारी कर रहे थे कि शिवसैनिकों ने उनकी ताकत और बढ़ा दी। जो रामजी पूरी दुनिया के घर की व्यवस्था में व्यस्त हैं, जिन्हें घर-घर तिलक लगाकर भजन-कीर्तन किए जाते हैं और भोग लगाकर प्रसाद बांटा जाता है, उन्हें प्रधानमंत्री आवास योजना में भी खुद का घर नहीं मिल पाया। और तो और हम अपनी क्षुद्र बुद्धि से रामजी के लिए इतना भी नहीं कर पा रहे कि हमारे पूर्वज जिन्हें अपने दिलों में संजोए “राम-राम” करते-करते “राम-नाम सत्य…” तक को प्राप्त हुए, उन्हें कम से कम चैन लेने दें। खुद के दिलों में बसे राम को महसूस करें, दूसरे के दिलों में बसे राम को कोसना बंद करें और आने वाली पीढ़ी को राम के लिए हुए झगड़ों की कहानी सुनाने की बजाय उनके आदर्शों का अनुसरण कराएं।
हमारी इस मनोदशा पर रामजी तो रामजी, उनके बंधु-बांधव यानी रहीमजी, पैगम्बरजी, ईशूजी, वाहेगुरुजी आदि भी मुस्कुरा रहे हैं कि जिन्होंने हमें बनाया, हम उन्हें ही बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यदि हम दिल-दिमाग तटस्थ कर खुद को “राम” शब्द पर केंद्रित करें, तो बाल्मीकि भले न बन पाएं, लेकिन खुद के हृदय में राम की अनुभूति अवश्य कर पाएंगे। लेकिन, जरा वज्र देहाती अनपढ़ मन से सोचिए तो अयोध्या से लेकर काशी तक, लखनऊ से दिल्ली और देश के कोने-कोने तक या विदेशों तक भी “राम” नाम की लूट मचाने वाले आपको क्या नजर आएंगे..! शायद इसीलिए उक्त कहावत बन पाई, या यूं कहें इस लेख को शीर्षक लुभा सका- “पड़लैं राम कुकुर के पल्ले”।
■ कृष्णस्वरूप
(नोट : यह लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं, इस लेख का आशय किसी को ठेस पहुंचाना नहीं है। अगर, इससे किसी की भावना आहत होती है, तो अग्रिम माफी)
