महात्मा बुद्ध के पश्चात् काशी लम्बे समय तक बौद्ध और हिन्दू धर्म का गढ़ रही। ईसा से प्रथम शताब्दी पूर्व यहाँ शैव और विष्णु संप्रदाय का बोलबाला रहा। जैन संप्रदाय के २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ का जन्म भी यही हुआ था, जिससे काशी जैनियों के लिए भी श्रद्धा का केंद्र बनी रही। इस काल में यहाँ कई मंदिरों और देवालयों का निर्माण हुआ। कहते हैं हर्ष के काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग जब यहाँ से गुजरा तो उसने काशी में १०,००० से अधिक मंदिरों के होने की बात कही। सारनाथ का विवरण उसने एक नगर के रूप में किया, जो बौद्ध भिक्षुकों के विहारों, चैत्यों, और स्तूपों से भरा था। इसमें उसने अशोक के द्वारा बनाए स्तूप का भी विवरण दिया।
हर्ष के काल में ही उसने दान की एक प्रथा को भी प्रचलित किया और वर्ष में एक बार काशी के निकट प्रयाग में सर्वश्व दान करने की रीति चलाई। हर्ष के पश्चात् उत्तर-भारत गुर्जर, प्रतिहार और पाल शासकों के बीच संघर्ष का केंद्र रहा। इस समय काशी अलग-अलग शासकों के आधीन रही। आठवीं शताब्दी में इसी समय केरल के निम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के ‘कालडी़ ग्राम’ में 788 ई. में आदि शंकराचार्य का जन्म हुआ। शंकराचार्य अद्वैत वेदान्त के प्रणेता, संस्कृत के विद्वान, उपनिषद व्याख्याता और हिन्दू धर्म प्रचारक थे। हिन्दू धार्मिक मान्यता के अनुसार इनको भगवान शंकर का अवतार माना जाता है। इन्होंने लगभग पूरे भारत की यात्रा की और इनके जीवन का अधिकांश भाग उत्तर भारत में बीता। इन्होंने भारत के चार कोनों में चार पीठों का निर्माण किया, जो आज भी जीवित हैं।
शंकराचार्य ने अनेक ग्रन्थ लिखे हैं, किन्तु उनका दर्शन विशेष रूप से उनके तीन भाष्यों में, जो उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और गीता पर हैं, मिलता है। हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार आदि शंकराचार्य ने अपनी अनन्य निष्ठा के फलस्वरूप अपने सदगुरु से शास्त्रों का ज्ञान ही नहीं प्राप्त किया, बल्कि ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया। जीवन के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पक्ष की सत्यता को इन्होंने जहाँ काशी में घटी दो विभिन्न घटनाओं के द्वारा जाना, वहीं मंडनमिश्र से हुए शास्त्रार्थ के बाद परकाया प्रवेश द्वारा उस यथार्थ का भी अनुभव किया, जिसे सन्यास की मर्यादा में भोगा नहीं जा सकता। यही कारण है कि कुछ बातों के बारे में पूर्वाग्रह दिखाते हुए भी लोक संग्रह के लिए, आचार्य शंकर आध्यात्म की चरम स्थिति में किसी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करते। अपनी माता के जीवन के अंतिम क्षणों में पहुँचकर पुत्र होने के कर्तव्य का पालन करना इस संदर्भ में अत्यंत महत्त्वपूर्ण घटना है।
आदि शंकराचार्य को हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित एवं प्रतिष्ठित करने का श्रेय दिया जाता है। एक तरफ उन्होंने अद्वैत चिन्तन को पुनर्जीवित करके सनातन हिन्दू धर्म के दार्शनिक आधार को सुदृढ़ किया, तो दूसरी तरफ उन्होंने जनसामान्य में प्रचलित मूर्तिपूजा का औचित्य सिद्ध करने का भी प्रयास किया। सनातन हिन्दू धर्म को दृढ़ आधार प्रदान करने के लिये उन्होंने विरोधी पन्थ के मत को भी आंशिक तौर पर अंगीकार किया। शंकर के मायावाद पर महायान बौद्ध चिन्तन का प्रभाव माना जाता है। इसी आधार पर उन्हें ‘प्रछन्न बुद्ध’ कहा गया है।
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