एक बार उलाहनों से तंग आकर यशोदा मैया श्रीकृष्ण के पीछे छड़ी दौड़ी। प्रभु ने जब मैया को क्रोध में देखा, तो वह अपना बचाव करने के लिए भागने लगे। भागते-भागते श्रीकृष्ण एक कुम्हार के पास पहुंचे। कुम्हार मिट्टी के घड़े बनाने में व्यस्त था। प्रभु ने कुम्हार से कहा कि आज मैया मुझ पर बहुत क्रोधित हैं और छड़ी लेकर मेरे पीछे आ रही हैं। भैया, मुझे कहीं छुपा लो।
कुम्हार ने झट से श्रीकृष्ण को एक बड़े से मटके के नीचे छिपा दिया। कुछ ही क्षणों में मैया यशोदा भी वहां आ गईं और कुम्हार से पूछने लगी- तुमने मेरे कन्हैया को कहीं देखा है, क्या?
कुम्हार ने कह दिया: नहीं, मैया! मैंने कन्हैया को नहीं देखा।
श्रीकृष्ण ये सब बातें घड़े के नीचे छुपकर सुन रहे थे। जब मैया चली गईं, तब प्रभु ने कुम्हार से कहा कि अब मुझे इस घड़े से बाहर निकालो। पर, कुम्हार नहीँ माना वह बोला- ऐसे नहीं, प्रभुजी! पहले मुझे चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।
भगवान मुस्कुराए और कहा- ठीक है, मैं तुम्हें चौरासी लाख योनियों से मुक्त करने का वचन देता हूं। अब तो मुझे बाहर निकाल दो। कुम्हार कहने लगा- मुझे अकेले नहीं, प्रभु जी! मेरे परिवार के सभी सदस्यों को चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करने का वचन दोगे, तो मैं आपको इस घड़े से बाहर निकालूंगा। प्रभु इस पर भी सहमत हो गए और बोले-अब तो मुझे बाहर निकालो।
अब कुम्हार ने कहा- बस, प्रभुजी! एक विनती और है। उसे भी पूरा करने का वचन दे दो, तो मैं आपको घड़े से बाहर निकाल दूंगा।
भगवान बोले: वो भी बता दो, क्या कहना चाहते हो?
कुम्हार कहने लगा- प्रभु! जिस घड़े के नीचे आप छुपे हैं, उसकी मिट्टी मैं अपने बैलों के ऊपर लाद के लाया हूं। मेरे इन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त करने का वचन दो।भगवान ने कुम्हार के प्रेम पर प्रसन्न होकर उन बैलों को भी चौरासी के बन्धन से मुक्त होने का वचन दिया।
प्रभु बोले- अब तो तुम्हारी सब इच्छा पूरी हो गई, अब तो मुझे घड़े से बाहर निकाल दो।तब कुम्हार ने कहा- अभी नहीं, भगवन! बस, एक अन्तिम इच्छा और है। उसे भी पूरा कर दीजिए और वो ये है, जो भी प्राणी हम दोनों के बीच के इस संवाद को सुनेगा, उसे भी आप चौरासी लाख योनियों के बन्धन से मुक्त करेंगे। कुम्हार की प्रेम भरी बातों को सुन कर श्रीकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए और कुम्हार की इस इच्छा को भी पूरा करने का वचन दिया। फिर कुम्हार ने बाल श्रीकृष्ण को घड़े से बाहर निकाल दिया। उनके चरणों में साष्टांग प्रणाम किया। प्रभु के चरण धोये और चरणामृत पीया। अपनी पूरी झोंपड़ी में चरणामृत का छिड़काव किया और प्रभुजी के गले लगकर इतना रोये कि प्रभु में ही विलीन हो गए।
मित्रों, जरा सोचिए जो बालगोपाल सात कोस लम्बे-चौड़े गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुली पर उठा सकते हैं, तो क्या वो एक घड़ा नहीं उठा सकते थे! लेकिन बिना प्रेम रीझे नहीं नटवर नन्द किशोर। कोई कितने भी यज्ञ करे, अनुष्ठान करे, कितना भी दान करे, चाहे कितनी भी भक्ति करे, लेकिन जब तक मन में प्राणी मात्र के लिए प्रेम नहीं होगा, प्रभु श्रीकृष्ण मिल नहीं सकते।
ऊं तत्सत…