महात्मा बुद्ध एक दोपहर वन में एक वृक्ष तले विश्राम के लिए रुके। उन्हें प्यास लगी, तो उनका शिष्य पास के पहाड़ी झरने पर पानी लेने गया । झरने का पानी गंदा था। कीचड़ ही कीचड़ और सड़े पत्ते उसमें उभर कर आ गए थे। शिष्य पानी बिना लिए ही लौट आया। उसने बुद्ध से कहा ,’झरने का पानी निर्मल नहीं है, मैं पीछे लौट कर नदी से पानी ले आता हूं।’ नदी बहुत दूर थी। बुद्ध ने उसे झरने का ही पानी लाने को वापस लौटा दिया ।शिष्य थोड़ी देर में फिर खाली लौट आया। पानी उसे लाने जैसा नहीं लगा, पर बुद्ध ने उसे इस बार फिर वापस लौटा दिया।
तीसरी बार शिष्य जब झरने पर पहुंचा, तो देखकर चकित हो गया। झरना अब बिल्कुल निर्मल और शांत हो गया था। कीचड़ बैठ गया था और जल निर्मल हो गया था। मित्रों, यही स्थिति हमारे मन की भी है। यदि शांति और धीरज से उसे बैठ कर देखते रह जाए, तो कीचड़ अपने आप नीचे बैठ जाता है और सहज निर्मलता का आगमन हो जाता है।
ऊं तत्सत…
