एक दिन शहर के सेठ की कोठी के दरवाजे पर एक भिखारी भिक्षा मांगने के लिए पहुंच गया। भिखारी ने दरवाजा खटखटाया, सेठजी बाहर आए लेकिन उनकी जेब में देने के लिए कुछ न निकला। वे कुछ दुखी होकर घर के अंदर गए और एक बर्तन उठाकर भिखारी को दे दिया।
भिखारी के जाने के थोड़ी देर बाद ही वहां सेठजी की पत्नी आईं और बर्तन न पाकर चिल्लाने लगीं- “अरे! क्या कर दिया आपने चांदी का बर्तन भिखारी को दे दिया। दौड़ो-दौड़ो और उसे वापस लेकर आओ।”
सेठजी दौड़ते हुए गए और भिखारी को रोक कर कहा- “भाई मेरी पत्नी ने मुझे जानकारी दी है कि यह गिलास चांदी का है, कृपया इसे सस्ते में मत बेच दीजिएगा।”
वहीं पास में खड़े सेठजी के एक मित्र ने उससे पूछा- “मित्र! जब आपको पता चल गया था कि ये गिलास चांदी का है, तो भी उसे गिलास क्यों ले जाने दिया?”
सेठजी ने मुस्कुराते हुए कहा- “मन को इस बात का अभ्यस्त बनाने के लिए कि वह बड़ी से बड़ी हानि में भी कभी दुखी और निराश न हो!”
मित्रों, मन को कभी भी निराश न होने दें, बड़ी से बड़ी हानि में भी प्रसन्न रहें। मन उदास हो गया, तो आपके कार्य करने की गति धीमी हो जाएगी। इसलिए मन को हमेशा प्रसन्न रखने का प्रयास करें।
ऊं तत्सत…
