“दिल भी इक जिद पे अड़ा है किसी बच्चे की तरह।
या तो सब कुछ ही इसे चाहिए या…।” राजेश रेड्डी की लिखी ये पंक्तियां वैसे तो हमेशा से सियासतदारों के मिजाज पर सटीक बैठती रही हैं, लेकिन मौजूद दौर में ये और तर्कसंगत बनती जा रही है। आज की सत्ता हर संस्था की स्वतंत्रता में दखल चाहती है और हर फैसला सिर्फ और सिर्फ अपनी मुट्ठी में बंद रखना चाहती है। नतीजतन, यहां-वहां से विरोध के सुर उठ रहे हैं और जनता तमाशबीन बन कर रह गई है।
खैर, सत्ता को किसी बात से कोई फर्क नहीं पड़ रहा, जम्मू-कश्मीर में अचानक सरकार गिराने और अब विधानसभा भंग करने से लेकर आरबीआई विवाद हो या सरकारी संस्थाओं की धूमिल होती छवि…। सत्ता अपने मद में है। सबकुछ अपने हिसाब से चलाने की जिद बरकरार ही नहीं है, बल्कि किसान का कर्ज-बेरोजगारी-नोटबंदी- राफेल वादों-आरोपों का बोझ कंधे पर उठाए सत्ता सबकुछ अपने हिसाब से बदल देने को बेकरार भी दिख रही है। फिर चाहे कीमत साथियों के तौर पर चुकानी पड़े या अपनों का साथ छूट जाए। मंगलवार को सुषमा स्वराज ने 2019 में चुनाव न लड़ने की घोषणा कर बीजेपी में अपनी भागीदारी पर लगभग ब्रेक लगा दिया। हालांकि, उन्होंने सन्यास न लेने की बात कही, लेकिन क्या वो पिछले कुछ सालों से राजनीति में वाकई सक्रिय थीं! क्या सत्ता को उनके या उन जैसे वरिष्ठों के अनुभव की दरकार थी!! कुुछ प्रश्नों के उत्तर न ही मिले तो अच्छा है। हिंदी सिनेमा “थ्री इडियट्स” का वह डायलॉग सहसा याद हो आया कि हालात कैसे भी हों, दिल पर हाथ रखकर कहिए, “ऑल इज वेल”।
■ संपादकीय