निदा फाजली की लिखी पंक्ति आज अचानक याद हो आई,
“स्टेशन पर खत्म की भारत तेरी खोज,
नेहरू ने लिखा नहीं कुली के सर का बोझ।”
कुछ ऐसा ही हाल सालों से धरती के स्वर्ग (जम्मू-कश्मीर) का था, जहां की खूबसूरत वादियों का जिक्र अब सिर्फ किस्सा बन कर रह गया था और जमीनी हालात दिन-ब-दिन बद से बदतर होते जा रहे थे। इन सबका सबसे ज्यादा असर वहां रहने वाले आम लोगों पर हो रहा है, जिनकी बात न कोई सुनने की कोशिश कर रहा था, न जानने की। खासकर, वहां की राजनीति बस इन आम लोगों की भावनाओं को भड़का कर सियासी रोटियां सेंकने का काम कर रही थीं। ऐसे में, केंद्र सरकार का ताजा फैसला स्वागत योग्य है। बातचीत से मसला सुलझना होता, तो यूं सालों से उलझा नहीं रहता!
बहरहाल, बड़े और कड़े फैसलों के विरोध भी होते हैं और कुछ समय तक देश के बाहर ही नहीं अंदर भी कुछ राजनीतिक हलचल होंगे। लेकिन, उम्मीद के नए दरवाजे खुले हैं। यह आशा जगी है कि केंद्र सरकार के इस निर्णय के बाद वहां स्थितियां बदलेंगी। इस फ़ैसले ने जहां अमेरिका को जमीन दिखाई है, वहीं पाकिस्तान-चीन की कूटनीतिक चालों को भी कड़ा संदेश दिया है। इतना ही नहीं, विश्व पटल पर भारत की नई छवि भी रखी है।
खैर, अभी तो केंद्र ने सिर्फ कागज पर अपने फैसले को जामा पहनाया है, उसे जमीन पर लागू करने के लिए कश्मीर के राजनैतिक दलों, अलगाववादियों, आतंकवादियों और पाकिस्तान से निपटना होगा, जो आसान नहीं होगा, लेकिन वर्तमान सच यही है कि स्वतंत्रता दिवस से चंद दिनों पहले जम्मू-कश्मीर को आजादी मिली है, जो स्वागत योग्य है। परिणाम क्या होगा, ये तो आने वाला वक्त बताएगा, मैं अपनी बाद निदा फाजली के ही शब्दों के साथ खत्म करती हूं, जो वर्षों पहले कश्मीर की जमीं से निकले लोगों पर फिट बैठती है-
घर को खोजें रात-दिन घर से निकले पाँव,
वो रस्ता ही खो गया, जिस रस्ते था गाँव।
■ सोनी सिंह