‛काशी’, ‛वाराणसी’ या ‛बनारस’ चाहे जिस नाम से पुकारे शहर तो एक ही है, परंतु हर नाम कुछ अलग अहसास कराता है। जैसे, काशी नाम से ही जन्म-मरण-मोक्ष की नगरी आँखों के आगे तैरने लगती है। ‛बनारस’ बोलते ही पान-साड़ी की तरह ही एक कला और याद आती है, वह है “बनारसी गुलाबी मीनाकारी”। इस कला का इस्तेमाल प्राचीन काल में राजे-रजवाड़ों के मुकुट, छत्र, वस्त्र और रत्नजड़ित आभूषण पर किया जाता था। बाद में गुलाबी मीनाकारी आभूषणों, सजावटी सामान विशेषकर हाथी, घोड़े, ऊंट, चिड़िया, मोर तथा चांदी के बर्तनों आदि पर की जाती है। लगातार उपेक्षा के कारण मीनाकारी लगभग दम तोड़ रही थी, लेकिन पक्के महाल की तंग गलियों में एक बार फिर इसे जीवित करने का प्रयास चल रहा है। आइए इसी कला के जन्म पर चर्चा करते हैं-
पारस से आई और बनारसी हो गई
अद्भुत बारीकी, मनमोहक रंगों, और सुन्दर डिजाइनों के कारण बनारस की मीनाकारी की अपनी विशेष पहचान है। माना जाता है कि मीनाकारी की यह कला सत्रहवीं शताब्दी में पारस से बनारस आई। यह वो दौर था, जब मुगल दरबार की रौनक अपने चरम पर थी और भारत देश-विदेश की अगुआई का केंद्र बना हुआ था। पहले से सोने-चांदी के महीन काम में पारंगत बनारस के कलाकारों ने नया काम हाथों हाथ लिया और जल्द ही इस कला में निपुण होकर अपने ही डिजाइन बनाने लगे। और इस तरह कुछ समय में ही यह कला यहाँ इतनी निखरी की बनारसी हो गई, फिर बाहर के क्षेत्रों में भी इसकी मांग लगातार बढ़ने लगी।
सोने के बाद बदले धातु
मीनाकारी का काम प्रारम्भ में केवल सोने पर किया जाता था, पर समय के साथ इसका प्रचलन चांदी, और तांबे पर भी हो गया। मीनाकारी में सबसे पहले सोने या चांदी पर नक्काशी की जाती हैं और विभिन्न प्रकार के डिजाइन उभारे जाते हैं। इसके बाद इनमें प्राकृतिक रंगों के बुरादे भरे जाते हैं और इन्हें गर्म कर तपाया जाता है, जिससे रंग पिघलकर एक सामान धातु पर फैल जाते हैं। रंगों का प्रयोग हल्के से गाढ़े के क्रम में किया जाता है। और हर बार इसे पकाना पड़ता है। वैसे तो समय के साथ इसके डिजाइनों में बड़ा अंतर आ गया है, पर प्रारंभिक डिजाइन जैसे पशु-पक्षी, बेल-बूट, जाली, और ज्यामितीय आकार आज भी प्रचलित हैं।
महीनों की मेहनत
सोने के लकीरों से सजी मीनाकारी की सुंदरता देखते ही बनती है। इसमें मांग के अनुसार बहुमूल्य धातुओं जैसे हीरा, पन्ना, मोती आदि का प्रयोग भी किया जाता है। अमूमन मीनाकारी का काम अत्यंत मनमोहक और तकनीकी माना जाता है और एक डिजाइन तैयार करने में लगभग 4-5 महीने का समय लगता है। कुछ समय से इस कला की मांग घट रही थी, जिससे कलाकारों का भी पलायन हो रहा था। लेकिन इस बार महिलाओं ने पुरुषों की कला माने जाने वाली इस मीनाकारी पर हाथ आजमाया ही नहीं, बल्कि इसे पुनर्जीवित करने की ठान ली है। परिणामतः शिल्प मेलों में एक बार फिर बनारसी मीनाकारी की चमक दिख रही है और विश्व पटल पर कला को फिर परोसा जा रहा है।
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