रोग ऐसे भी गम-ए-यार से लग जाते हैं,
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं।
इश्क आगाज में हल्की सी खलिश रखता है,
बाद में सैकड़ों आजार से लग जाते हैं।
पहले पहले हवस इक-आध दुकां खोलती है,
फिर तो बाजार के बाजार से लग जाते हैं।
बेबसी भी कभी कुर्बत का सबब बनती है,
रो न पाएँ तो गले यार से लग जाते हैं।
कतरनें गम की जो गलियों में उड़ी फिरती हैं,
घर में ले आओ तो अम्बार से लग जाते हैं।
दाग दामन के हों, दिल के हों कि चेहरे के ‘फराज’,
कुछ निशाँ उम्र की रफ्तार से लग जाते हैं।
■ अहमद फराज